french revolution
The French Revolution (French: Révolution française; 1789-1799) was a period of political and social upheaval and radical change in The History of France that lasted from 1789 to 1799. Later, Napoleon Bonaparte carried forward this revolution to a fraction of its part by the expansion of the French Empire. As a result of the revolution, the king was removed from the throne, a republic was established, a period of bloody conflicts ensued, and eventually napoleon's dictatorship was established, which led to the spread of many of the values of this revolution in western Europe and beyond. This revolution changed the course of modern history. This led to the decline of a full-fledged polity around the world, new republics and liberal democracies.
the great changes shook western civilization, in which the french revolution proved to be the most dramatic and complex. this revolution disrupted the life of not only france but also the whole of europe. the french revolution is called a milestone in the history of the whole world. this revolution also created a desire for freedom in other european countries and other countries also began to struggle for freedom from the monarchy. it created an atmosphere against monarchy and autocracy in asian countries, including european nations. that's why the revolution changed.
causes of revolution[edit]
political situations[edit]
there was an autocratic monarchy in france which was based on the divine principle of monarchy. in this, the king had unlimited rights and the king was a voluntarist. during the reign of louis fourteenth (1643-1715), absolutism was at its peak. he said, "i am the kingdom." he made the law according to his will. he centralized the power highly in favour of the monarchy. expanded france with diplomacy and military acumen. in this way, he made the monarchy a serious profession.
the system of government that louis the fourteenth had centralized required a worthy king, but his successors louis 15th and louis x6th were completely unfit. louis 15th (1715-1774) was the most luxurious, short-sighted and passive ruler. australia's participation in the succession war and the seven year's war caused great damage to the country's economic situation. despite this, the palace of versailles remained a center of luxury. he said there would be a cataclysm after me.
on the eve of the revolution, louis xivius (1774 -93) was the ruler. he was an inefficient and inept ruler. he also demonstrated voluntary and despotism. "this thing is legal because i want it. at the time of the resignation of one of his ministers, he said, "i wish! i could also resign. his wife marie antointe had an extreme influence on him. she was wasteful. he had no understanding of the problems of the common man. once when the procession of people was demanding bread, he advised that if bread is not available then why people do not eat cake.
in this way, the system of governance of the country was completely dependent on the bureaucracy. which was hereditary. there were no rules for their recruitment and training and the body that controlled these bureaucrats was also not present. in this way, the system of governance was completely corrupt, autocratic, passive and exploitative. the personal law and the law of the king's will applied. as a result, there was a lack of uniform law code in the country and different laws in circulation in different areas. due to this disorderly and complex law, the public did not have knowledge of their own law. the existence of this disorderly, autocratic and senseless system of governance became painful for the masses. these oppressive political circumstances paved the way for the revolution. regarding the chaotic situation in france, you can be said that "there was no question of a bad system, there was no system at all." "
social situations[edit]
the causes of the revolution can also be seen in social conditions. french society was heterogeneous and disintegrated. that society has three sections/classes. it was divided into states. the first states included the clergy, the elite in the second states, and the general public in the third states. the clergy and the elite had great privileges while the common man was without authority.
- (क) प्रथम स्टेट : पादरी वर्ग दो भागों में विभाजित था-उच्च एवं निम्न। उच्च वर्ग के पास अपार धन था। वह “टाइथ” नामक कर वसूलता था। ये शानों शौकत एवं विलासीपूर्ण जीवन बिताते थे, धार्मिक कार्यों में इनकी रूचि कम थी। देश की जमीन का पांचवा भाग चर्च के पास ही था और ये पादरी वर्ग चर्च की अपार सम्पदा का प्रयोग करते थे। ये सभी प्रकार के करों से मुक्त थे इस तरह उनका जीवन भ्रष्ट, अनैतिक और विलासी था। इस कारण यह वर्ग जनता के बीच अलोकप्रिय हो गया था और जनता के असंतोष का कारण भी बन रहा था। दूसरा साधारण पादरी वर्ग था जो निम्न स्तर के थे। चर्च के सभी धार्मिक कार्यों को ये सम्पादित करते थे। वे ईमानदार थे और सादा जीवन व्यतीत करते थे। अतः उनके जीवन यापन का ढंग सामान्य जनता के समान था। अतः उच्च पादरियों से ये घृणा करते थे और जनसाधारण के प्रति सहानुभूति रखते थे। क्रांति के समय इन्होंने क्रांतिकारियों को अपना समर्थन दिया।
- (ख) द्वितीय स्टेट : कुलीन वर्ग द्वितीय स्टेट में शामिल था और सेना, चर्च, न्यायालय आदि सभी महत्वपूर्ण विभागों में इनकी नियुक्ति की जाती थी। एतदां के रूप में उच्च प्रशासनिक पदों पर इनकी नियुक्ति होती थी और ये किसानों से विभिन्न प्रकार के कर वसूलते थे और शोषण करते थे। यद्यपि रिशलू और लुई 14वें के समय कुलीनों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया गया था किन्तु आगे लुई 15वें और 16वें के समय से उन्होंने अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया। यह कुलीन वर्ग भी आर्थिक स्थिति के अनुरूप उच्च और निम्न वर्ग में विभाजित थे।
- (ग) तृतीय स्टेट : तृतीय स्टेट के लोग जनसाधारण वर्ग से संबद्ध थे जिन्हें कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। इनमें मध्यम वर्ग, किसान, मजदूर, शिल्पी, व्यापारी और बुद्धिजीवी लोग शामिल थे। इस वर्ग में भी भारी असमानता थी। इन सभी वर्गों की अपनी-अपनी समस्याएं थी। यें सब वर्ग असमानता के कारण सामांतों और चर्चों के उच्च पदाधिकारियों से घृणा करते थे। सामंतों का व्यवहार इनके साथ अपमानजनक था। इस वर्ग में कुछ लोगों के पास धन तथा योग्यता थी पर, समाज में प्रतिष्ठा नहीं थी। यह विषमता भी दूर हो सकती थी जब सामंती पिरामिड को खत्म कर दिया जाता। इस वर्ग की मांग थी बुराई दूर करने के लिए मेरी आवाज सुनी जाए। फ्रांस में किसानों की संख्या 2 करोड़ थी। इनमें अधिकांश अर्द्ध कृषक या बंधुआ थे। किसान राजा को विभिन्न कर देते थे।
किसानों की संख्या सर्वाधिक थी और इनकी दशा निम्न और सोचनीय थी। किसानों को राज्य, चर्च तथा अन्य जमीदारों को अनेक प्रकार के कर देने पड़ते थे और सामंती अत्याचारी को सहना पड़ता था। एक दृष्टि से किसानों के असंतोष का मुख्य कारण सामंतों द्वारा दिए जा रहे कष्ट एवं असुविधाएं थी और राजतंत्र इस पर चुप्पी साधे हुए था। इस तरह किसान इतने दुःखी हो चुके थे कि वे स्वयं ही एक क्रांतिकारी तत्व के रूप में परिणत हो गए और उन्हें क्रांति करने के लिए मात्र एक संकेत की आवश्यकता थी।
मध्यम वर्ग (बुर्जुआ) में साहुकार व्यापारी, शिक्षक, वकील, डॉक्टर, लेखक, कलाकार, कर्मचारी आदि सम्मिलित थे। उनकी आर्थिक दशा में अवश्य ठीक थी फिर भी वे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के प्रति आक्रोशित थे। इस वर्ग को कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं था और पादरी और कुलीन वर्ग का व्यवहार इनके प्रति अच्छा नहीं था। इस कारण मध्यवर्ग कुलीनों के सामाजिक श्रेष्ठता से घृणा रखते था और राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन कर अपने अधिकारों को प्राप्त करने के इच्छुक था। यही कारण था कि फ्रांस की क्रांति में उनका मुख्य योगदान रहा और उन्होंने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। मध्यवर्ग के कुछ आर्थिक शिकायतें भी थी। पूर्व के वाणिज्य व्यापार के कारण इस वर्ग ने धनसंपत्ति अर्जित कर ली थी किन्तु अब सामंती वातावरण में उनके व्यापार पर कई तरह के प्रतिबंध लगे थे जगह-जगह चुंगी देनी पड़ती थी। वे अपने व्यापार व्यवसाय के लिए उन्मुक्त वातावरण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। इस तरह हम कह सकते हैं कि फ्रांस की क्रांति फ्रांसीसी समाज के दो परस्पर विरोधी गुटों के संघर्ष का परिणाम थी। एक तरफ राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली और दूसरी तरफ आर्थिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली वर्ग थे। देश की राजनीति और सरकार पर प्रभुत्व कायम करने के लिए इन दोनों वर्गों में संघर्ष अनिवार्य था। इस तरह 1789 की फ्रांसीसी क्रांति, फ्रांसीसी समाज में असमानता के विरूद्ध संघर्ष थी।
आर्थिक परिस्थितियाँ[संपादित करें]
फ्रांस की आर्थिक अवस्था संकटग्रस्त थी। राज्य दिवालियापन के कगार पर पहुंच गया था। वस्तुतः फ्रांस के राजाओं की फिजूलखर्ची तथा लुई 14वें के लगातार युद्धों के कारण शाही कोष खाली हो गया था। उसकी मृत्यु के बाद लुई 15वें ने आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध एवं सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लिया जिससे राजकोष पर बोझ और बढ़ा और अंततः लुई 16वें ने अमेरिकी स्वतंत्रता युद्ध में भाग लेकर फ्रांस की आर्थिक दशा को और भी जर्जर बना दिया।
सम्राट, साम्राज्ञी और उनके परिवार पर राज्य की अत्यधिक राशि खर्च की जाती थी। वर्साय का राजमहल राजकोष के लूटपाट का साधन बना था। दूसरी तरफ कर प्रणाली असंतोषजनक थी। विशेषाधिकारों के कारण सम्पन्न वर्ग कर से मुक्त था तथा गरीब किसान जो आर्थिक दृष्टि से विपन्न था, एकमात्र करदाता था। इस तरह राजकोष की स्थिति अत्यंत सोचनीय हो गई थी। सरकार फ्रांस में आय के अनुसार व्यय करने के बजाय व्यय के अनुसार आय को निश्चित करती थी।
राज्य ऋण के बोझ तले दबता गया। मूल धन की तो बात ही क्या फ्रांस ब्याज चुकाने में असमर्थ था अर्थात् राज्य दिवालिएपन की स्थिति में पहुंच गया था।
देश की आर्थिक दुर्व्यवस्था को व्यापार वाणिज्य को प्रोत्साहन देकर सुधारा जा सकता था परन्तु सरकार की वाणिज्य नीति इतनी अनियंत्रित एवं दोषपूर्ण थी कि उससे राज्य में उत्पादन एवं व्यापार का विकास संभव नहीं था।
लुई 16वें ने तुर्गों, नेकर जैसे वित्त सलाहकारों के माध्यम से आर्थिक संकट को दूर करने का प्रयास किया लेकिन ये सुधार प्रयास लागू नहीं हो सके क्योंकि विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग ने अपने ऊपर कर लगाने की बात स्वीकार नहीं की। अंततः विशेषाधिकार उन्मूलन के प्रस्तावों को पारित करने के लिए इस्टेट जनरल की बैठक बुलाने की मांग की गई और 1789 ई. में इस्टेट जनरल की बैठक के साथ ही क्रांति का आगमन हुआ, इसलिए तत्कालीन आर्थिक दुर्दशा को फ्रांस की क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण माना जाता है।
विचारकों/दार्शनिकों की भूमिका[संपादित करें]
फ्रांसीसी क्रांति में दार्शनिकों की भूमिका के संदर्भ में दो मत सामने आते हैं-एक, दार्शनिकों ने क्रांति की परिस्थितियों को जन्म देकर क्रांति को उत्पन्न किया और दूसरा क्रांति का स्रोत तो उस समय के राष्ट्रीय जीवन के दोषों में तथा सरकार की भूलों में था और दार्शनिकों ने क्रांति उत्पन्न नहीं की। किसी भी मत पर निर्णय देने के पूर्व उन दार्शनिकों के विचारों और क्रांति के साथ उनके संबंधों को समझना वांछनीय होगा। दार्शनिकों के विचारों की लोकप्रियता का निर्धारण तो उस समय उनके छपे लेखों के संस्करणों और प्रसार के आधार पर देखा जाना चाहिए।
मॉण्टेस्क्यू[संपादित करें]
मॉण्टेस्क्यू (1689-1755 ई.) ने अपनी पुस्तक 'द स्पिरिट ऑफ लॉज' (The Spirit of Laws) में राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धान्तों का खण्डन किया और फ्रांसीसी राजनीतिक संस्थाओं की आलोचना ही नहीं कि वरन् विकल्प भी प्रस्तुत किया। उसने लिखा कि फ्रांसीसी सरकार निरकुंश सरकार है क्योंकि फ्रांस में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका संबंधी सभी शक्तियां एक ही व्यक्ति अर्थात् राजा के हाथों में केन्द्रित है इसलिए फ्रांस की जनता को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है। इसी सदंर्भ में उसने “शक्ति के पृथक्करण” का सिद्धान्त दिया जिसके अनुसार शासन के तीन प्रमुख अंग-कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को अलग-अलग हाथों में रखने की सलाह दी। उसने इंग्लैंड की सरकार को आदर्श बताया क्योंकि वहां संवैधानिक राजतंत्र था जिससे वहां नागरिकों को स्वतंत्रता थी। इस प्रकार मॉण्टेस्क्यू ने शक्ति के पृथक्करण के माध्यम से फ्रांस की निरंकुश राजव्यवस्था पर चोट की। उसके ये विचार इतने लोकप्रिय हुए कि 'द स्पिरिट ऑफ लाज' के तीन वर्षों में छह संस्करण प्रकाशित हुए। यहां ध्यान रखने की बात यह है कि मॉण्टेस्क्यू ने न तो क्रांति की बात की और न ही राजतंत्र को समाप्त करने की। उसने तो सिर्फ निरंकुश राजतंत्र के दोषों को उजागर किया और संवैधानिक राजतंत्र की बात की।
वाल्टेयर[संपादित करें]
वाल्टेयर ( 1694 - 1778 ई.) ने अपनी पुस्तकों, जैसे "लेटर्स ऑन द इंगलिश" आदि, के माध्यम से ब्रिटेन में व्याप्त उदार राजनीति, धर्म और विचार की स्वतंत्रता का बहुत अच्छा चित्रण किया तथा पुरातन फ्रांसीसी व्यवस्था से उसकी तुलना की और फ्रांस में व्याप्त बुराईयों एवं कमियों का उल्लेख किया। प्रतिबंधित होने से पूर्व ये पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुई थी। वाल्टेयर ने चर्च के भ्रष्ट अचारण, असहिष्णुता, अन्याय, दमन और अत्याचार के विरोध में लिखा। चर्च की भ्रष्टता पर उंगली उठाते हुए उसने लिखा कि अब तो कोई ईसाई बचा नहीं क्योंकि एक ही ईसाई था और उसे सूली पर चढ़ा दिया गया। उसने लिखा कि कुख्यात एवं बदनाम चीज को कुचल दो। यह स्पष्ट रूप से फ्रांस के निरंकुश राजतंत्र एवं चर्च के अत्याचार पर प्रहार था। प्रो.केटेलबी ने वाल्टेयर को फ्रांस का बौद्धिक ईश्वर (Intellectual God of France) कहा है। वह दलितों के खातिर संघर्ष के लिए हमेशा तैयार रहता था। वाल्टेयर इंग्लैंड के संवैधानिक राजतंत्र के अनुरूप ही फ्रांस में भी वैसा ही शासन स्थापित करना चाहता था। उसने कहा कि मैं सौ चूहों के स्थान पर एक सिंह का शासन पसंद करता हूँ। वाल्टेयर ने क्रांति की बात नहीं की लेकिन वैचारिक स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि तैयार की। उसने पुरातन फ्रांसीसी व्यवस्था की बुराईयों को उजागर किया। उसने लोगों के समक्ष तत्कालीन फ्रांसीसी समाज का आइना प्रस्तुत किया और यह बताया कि आइना में दाग कहा है।
रूसो[संपादित करें]
रूसो ने अपनी पुस्तक “एमिली”, “सोशल कॉन्ट्रैक्ट” व “रूसोनी” के माध्यम से मनुष्य की स्वतंत्रता की बात की। उसने कहा कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा होते हुए भी सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा हुआ है। इन जंजीरों से मुक्ति पाने का एक ही तरीका है कि हम प्राकृतिक आदिम अवस्था की ओर लौटें। रूसों ने कहा कि सामूहिक इच्छा से बने राज्य का यह अनिवार्य तथा सार्वभौम कर्तव्य है कि वह सारे समाज को सर्वोपरि मानते हुए कार्य को संचालित करे। जिन लोगों को कार्यपालिका शक्ति सौपीं गई है वे जनता के स्वामी नहीं, उसके कार्यकारी है और उनका कर्तव्य जनता की आज्ञा का पालन करना है। इस तरह उसका दृढ़ विश्वास था कि सर्वोपरि सत्ता जनता के हाथ में होनी चाहिए, किसी एक व्यक्ति या संस्था के हाथ में नहीं। सार्वभौम सत्ता जनता की इच्छा में निहित है जिसे “सामान्य इच्छा” (General Will) कहा गया। राज्य के कानून को इसी सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होना चाहिए लेकिन कानून का स्वरूप ऐसा नहीं रह गया है, बल्कि यह शासक की इच्छा पर निर्भर रहने लगा है।
रूसों ने भी क्रांति की बात नहीं की लेकिन सभी व्यक्तियों को स्वतंत्र एवं समान माना और फ्रांसीसी क्रांति का नारा 'स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व' उसी के विचारों से प्रभावित था। नेपोलियन ने उसके महत्व को स्वीकार करते हुए कहा कि यदि रूसो नहीं होता तो फ्रांस में क्रांति नहीं होती। रूसों की 'सोशल कॉन्ट्रैक्ट' की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक वर्ष में उसके 13 संस्करण प्रकाशित हुए।
अन्य दार्शनिक[संपादित करें]
18वीं शताब्दी के श्रेष्ठ विचारकों की रचनाओं को संकलित कर आम जनता तक पहुंचाने का श्रेय फ्रांसीसी विद्वान दिदरो (1713-84) को दिया जाता है इसने एक ज्ञान कोष (इन्साइक्लोपीडिया) का प्रकाशन किया। इसमें शासन की बुराइयों, चर्च की भ्रष्टता तथा हर क्षेत्र में व्याप्त असमानता को उजागर किया गया। फ्रांस की सरकार ने दिदरों को अपना घोर शत्रु माना और उसकी पुस्तक पर अनेक प्रतिबंध लगाए।
विचारकों का एक वर्ग इस समय फ्रांस में व्याप्त आर्थिक अव्यवस्था और उसके विश्लेषण पर केन्द्रित था। इन अर्थशास्त्रियों को “फिज्योक्रात” के नाम से जाना जाता था। इसमें प्रमुख थे- तुर्गों, क्वेसने, मिराबों आदि। क्वेसने मुक्त व्यापार का समर्थक था। व्यापारिक उत्पादन एवं वितरण की पूर्ण स्वतंत्रता तथा चुंगी कर एवं अन्य करों का विरोधी था। उसका तर्क था कि केवल भूमि सारी संपत्ति का मूल स्रोत है। अतः कर केवल भूमि पर लगाना चाहिए व्यापारी एवं कारीगरों पर नहीं।
तात्कालिक कारण[संपादित करें]
लुई 16वें के काल तक आते-आते फ्रांस की वित्तीय व्यवस्था ऋणों में डुब चुकी थीं। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम ने फ्रांस के दिवालिएपन पर मुहर लगा दी। अतः आर्थिक दुरावस्था को दूर करने के क्रम में तुर्गों, नेकर, कोलोन जैसे अर्थशास्त्रियों की मदद ली। कोलोन ने विशेषाधिकार प्राप्त कुलीन वर्ग पर कर लगाने का सुझाव दिया जिसे कुलीनों ने अस्वीकार कर दिया। अंततः स्टेस्ट्स जनरल की बैठक बुलाई गई। यह बैठक 1789 में 175 वर्ष बाद हो रही थी। स्टेट्स जनरल की बैठक का समाचार सुनकर सभी वर्ग उत्साहित थे। कुलीनाें को उम्मीद थी कि इस बैठक में वे उन विशेषाधिकारों को प्राप्त कर सकेंगे जो लुई 14वां के समय उनसे छिन लिए गए थे। मध्यवर्ग के लोगों का मानना था कि वे अपने पक्ष में प्रगतिशील नीतियों का निर्धारण करवा सकेंगे। किसानों को आशा थी कि वह सामंती विशेषाधिकारो के विरूद्ध आवाज उठाकर अपने अधिकारों को सुरक्षित कर उनके शोषण चक्र से मुक्त हो सकेंगे। इस तरह फ्रांसीसी राजतंत्र का समर्थन करने के लिए फ्रांसीसी जनसंख्या का कोई महत्वपूर्ण भाग तैयार नहीं था।
एस्टेट्स जनरल के अधिवेशन में मताधिकार पद्धति के मुद्दे पर तृतीय स्टेट (III Estate) एवं अन्य स्टेट के बीच विवाद हो गया। मतदान के बारे में कहा गया कि प्रत्येक स्टेट का एक ही मत माना जाएगा। इस प्रकार विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का दो तथा जनसाधारण का एक ही मत होता है। (विशेषाधिकार वर्ग में प्रथम स्टेट और द्वितीय स्टेट के पादरी और कुलीन वर्ग आते हैं।) जनसाधारण के प्रतिनिधियों ने अर्थात् 'तृतीय स्टेट' ने इस मतदान प्रणाली का विरोध किया क्योंकि इससे वे बहुत में होते हुए भी अल्पमत में आ जाते। तृतीय स्टेट यह चाहता था कि तीनों श्रेणियों के प्रतिनिधि एक साथ बैठकर बहुमत से निर्णय ले लेकिन पादरी एवं कुलीन वर्ग अलग-अलग बैठक चाहते थे। अतः तृतीय स्टेट ने स्टेट्स जनरल की बैठक का बहिष्कार कर अपने को समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधि मानते हुए राष्ट्रीय सभा के रूप में घोषित कर दिया और पास के टेनिस कोर्ट में अपनी सभा बुलाई।
- 20 जून 1789 को राष्ट्रीय सभा ने यह घोषणा की कि ““हम कभी अलग नहीं होंगे और जब तक संविधान नहीं बन जाता तब तक साथ में बने रहेंगे।”” यह एक क्रांतिकारी घटना थी। अंततः 27 जून को लुई 16वें ने तीनों वर्गों के प्रतिनिधियों की संयुक्त बैठक की अनुमति दे दी। यह जन साधारण की विजय थी। यह राजा तथा विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की पराजय का प्रथम दस्तावेज़ था। इस प्रकार स्टेट्स जनरल राष्ट्रीय सभा (National assembly) बन गई और उसे राजा की मान्यता मिल गई और वह वैधानिक हो गई। सभा ने 9 जुलाई 1789 को स्वयं को संविधान सभा (Constituent Assembly) घोषित करके देश के संविधान का निर्माण करना अपना सर्वप्रमुख लक्ष्य बनाया। इसी समय लुई 16वें ने अर्थमंत्री नेकर को बर्खास्त कर दिया जिसे जनता अपना समर्थक मानती थी और इसे क्रांति को कुचलने का प्रयास समझा गया। उसी समय यह खबर फैल गई कि बास्तील के क़िले में राजा ने शस्त्रों का भंडार जमा कर रखा है। अतः 14 जुलाई 1789 को पेरिस की भीड़ ने बास्तील के क़िले पर पर हमला कर दरवाजा तोड़ दिया और कैदियों को मुक्त कर दिया। बास्तील का पतन एक युगांतकारी घटना थी जो निरंकुशता का पतन एवं जनता की विजय का प्रतीक थी। वास्तव में यह क्रांति का उद्घोष था और इसीलिए फ्रांस में 14 जुलाई को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
क्रांति के विभिन्न चरण[संपादित करें]
फ्रांसीसी क्रांति विभिन्न चरणों से होते हुए अपने मुकाम तक पहुंची। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से क्रांति को निम्नलिखित चार चरणों में बांट कर देखा जा सकता है।
- प्रथम चरण - 1789-1792 ई. संवैधानिक राज तंत्र का चरण
- द्वितीय चरण - 1792-1794 ई. उग्र गणतंत्रवाद का चरण
- तृतीय चरण - 1794-1799 ई. उदार गणतंत्रवाद का चरण
- चतुर्थ चरण - 1799-1814 ई. तानाशाही एवं साम्राज्यवादी चरण
प्रथम चरण (1789-1792)[संपादित करें]
इस चरण में पेरिस की भीड़ ने बास्तील के क़िले पर नियंत्रण स्थापित किया। इस तरह क्रांति की शुरूआत हुई। वस्तुतः बास्तील का किला निरंकुशता एवं अत्याचार का प्रतीक था और इसके पतन से पुरातन व्यवस्था को गहरी चुनौती मिली। इस घटना का प्रभाव फ्रांस के ग्रामीण क्षेत्रों में भी पड़ा और ग्रामीणों ने सामंती करों के अभिलेखों को आग लगा दी। जनता की इन कार्यवाहियों का राष्ट्रीय सभा पर भी गहरा असर पड़ा। अतः 4 अगस्त 1789 जो रात भर का राष्ट्रीय सभा का अधिवेशन चला जिसमें कानून निर्मित करके सभी विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया। इस तरह इंग्लैंड और अमेरिका को समान कर दिया गया। राष्ट्रीय सभा का महत्वपूर्ण कार्य था- एक संविधान का निर्माण करना। अतः राष्ट्रीय सभा ही संविधान सभा कहलायी और 26 अगस्त 1789 को संविधान सभा ने मानवाधिकारों की घोषणा की।
मानवाधिकारों की सीमाएं[संपादित करें]
संविधान सभा ने अपने आदर्शों तथा उद्देश्यों के रूप में मानवाधिकारों की घोषणा की। इस घोषणा में समानता के सिद्धान्त पर बल दिया गया और कहा गया कि चूंकि सभी मनुष्य समान रूप से पैदा होते है अतः उन्हें समान अधिकार मिलने चाहिए। इन अधिकारों में स्वतंत्रता, संपत्ति सुरक्षा तथा अत्याचार के विरोध का अधिकार आदि शामिल थे। इस प्रकार संविधान सभा ने आधार भूत सिद्धान्तों, स्वतंत्रता, समानता व जनता के संप्रभुता की घोषणा की। संपत्ति के अधिकार को घोषणा पत्र में बार-बार दोहराया गया। इस अधिकार से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता था।
चर्च पर नियंत्रण[संपादित करें]
राष्ट्रीय संविधान सभा ने चर्च की संपत्ति को ज़ब्त कर लिया और जनता पर चर्च के नियंत्रण को कम करने का प्रयास किया। इस संदर्भ में चर्च को राज्य के अधीन ले आया गया और उसे रोम के पोप के प्रभाव से मुक्त कर राष्ट्रीय चर्च के रूप में तब्दील कर दिया गया।
राज्य के प्रति पादरियों की वफ़ादारी सुरक्षित करने के लिए "सिविल कांस्टीच्यूशन ऑफ क्लर्जी" बनाया गया। जिसके अनुसार पादरियों को राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी और जनता के द्वारा उनका चुनाव होता था। पोप और कुछ पादरियों ने इस कदम का विरोध किया। जिन पादरियों ने राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ ग्रहण कि वे “ज्यूरर” कहलाए जबकि शपथ नहीं लेने वाले “नॉन ज्यूरर” कहलाए। इस कानून से क्रांति के विरूद्ध एक माहौल निर्मित होने लगा क्योंकि अभी तक छोटे पादरियों ने क्रांति का समर्थन किया था। अब वे इससे अलग हो गए और कुछ पादरी देश छोड़ विदेशों में चले गए और वहां यूरोप में क्रांति के विरूद्ध प्रचार करने लगे।
संविधान निर्माण[संपादित करें]
राष्ट्रीय संविधान सभा ने फ्रांस के लिए लिखित संविधान तैयार किया और इस संविधान को 1791 में लुई सोलहवें ने अपनी स्वीकृति दे दी। संविधान में दो बातों पर बल दिया गया-एक, राज्य की सार्वभौम शक्ति जनता में निहित है और दूसरा, शक्ति का पृथक्करण राज्य एवं जनता के हित में है।
यद्यपि शासन प्रणाली राजतंत्रात्मक बनी रहीं परन्तु राजा के अधिकारों को सीमित किया गया। अब वह कानून निर्माता नहीं रहा। राजा को किसी देश से युद्ध या संधि करने का अधिकार नहीं था। कानून बनाने का अधिकार एक व्यवस्थापिका सभा को दिया गया और उसके सदस्यों की संख्या 745 थी।
व्यवस्थापिका के सदस्यों के निर्वाचन के लिए नागरिकों को सक्रिय और निष्क्रिय दो भागों में विभक्त कर दिया गया और मताधिकार केवल सक्रिय नागरिकों को दिया गया। सक्रिय नागरिक 25 वर्ष से अधिक आयु के वे लोग थे जो राज्य को तीन दिन की आय के बराबर प्रत्यक्ष कर देते थे जबकि निष्क्रिय नागरिक वे थे जो ग़रीब थे।
राष्ट्रीय सभा ने फ्रांस की प्रशासनिक संरचना में परिवर्तन किया। प्राचीन प्रांतों को खत्म करके सम्पूर्ण देश को 83 विभागों (Departments) में विभक्त किया गया। इन विभागों को कैन्टैन (Cantan) और कम्यून (Comune) में बांटा गया। प्रत्येक इकाई का शासन चलाने के लिए निर्वाचन परिषद् होती थी जिसका चुनाव सक्रिय नागरिक करते थे। इस तरह स्थानीय स्तर से लेकर केन्द्रीय स्तर तक सारी राज्य व्यवस्था बर्जआ वर्ग में आ गई।
द्वितीय चरण (1792-94)[संपादित करें]
राष्ट्रीय सभा के भंग होने के पश्चात् 1791 ई. में 745 सदस्यीय व्यवस्थापिका सभा (Legislative Assembly) अस्तित्व में आई थी। इस व्यवस्थापिका सभा में अध्यक्ष के दाहिने हाथ की ओर बैठने वाले 'दक्षिणपंथी' कहलाए। ये लोग अनुदार एवं राजतंत्र के समर्थक थे जबकि बाईं ओर बैठने वाले 'वामपंथी' कहलाए और यह समूह मूल परिवर्तनवादियों (Redicals) का था जो उग्र और क्रांतिकारी थे। रेडिकल्स भी दो वर्गों में बंटे थे- जिरोंदिस्त और दूसरा जैकोबियन।
इसी बीच फ्रांस की क्रांति का भय यूरोप के अन्य देशों के भी फैलने लगा। जो पादरी एवं कुलीन वर्ग फ्रांस से भाग यूरोप के अन्य क्षेत्रों के चले गए थे उन्होंने क्रांति के विरूद्ध भावना फैलाई। दूसरी तरफ फ्रांस के क्रांतिकारी अन्य देशों में भी क्रांतिकारी सिद्धान्तों को प्रचार चाह रहे थे। फलतः यूरोप के अन्य राजा शंकित हुए। परिणामस्वरूप क्रांतिकारी फ्रांस और यूरोप के अन्य देशों का आपसी संबंध बिगड़ा। आस्ट्रिया ने क्रांतिकारियों के मना करने पर भी फ्रांस के राजतंत्र के समर्थक शरणार्थियों को अपने यहां रहने दिया था। अतः व्यवस्थापिका सभा ने अप्रैल 1792 ई. में आस्ट्रिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, किन्तु फ्रांस की सेना बुरी तरह पराजित हुई। इस पराजय से फ्रांस की जनता को विश्वास हो गया कि राजा ने आस्ट्रिया को फ्रांस की सैन्य शक्ति और सुरक्षा के सारे भेद बता दिए हैं। अतः राजा के प्रति जनता का रवैया उग्र हो गया। इन स्थितियों में फ्रांसीसी राजतंत्र के समर्थन में प्रशा और आस्ट्रिया ने घोषणा की कि फ्रांस की जनता राजा की आज्ञा का पालन करे अन्यथा हम उनके विरूद्ध कार्यवाही करेंगे। इस तरह फ्रांस की क्रांति ने यूरोप में युद्ध की स्थिति उत्पन्न की।
इस घोषणा से फ्रांस की जनता और उग्र हो गई और उसने राजा को घेर लिया। राजा भागकर व्यवस्थापिका सभा की शरण में पहुंचा। अब यह विचार किया जाने लगा कि व्यवस्थापिका सभा भंग की जाए; पुनः चुनाव हो, नयी व्यवस्थापिका सभा बने और वह राजतंत्र के भविष्य पर अपना निर्णय दे। इसी के साथ व्यवस्थापिका सभा को समाप्त कर दिया गया और वयस्क मताधिकार के आधार पर राष्ट्रीय कन्वेशन का गठन हुआ।
नेशनल कन्वेंशन और आतंक का राज्य[संपादित करें]
21 सिंतबर 1792 को नेशनल कन्वेशन का प्रथम अधिवेशन हुआ। इसमें जैकोबियन एवं जिरोदिस्त दल प्रमुख थे। जैकोबियन अनुशासित और संगठित थे। पेरिस की भीड़ पर इनका प्रभाव था। इसमें प्रमुख नेता थे- दांते, रॉबस्पियर, हीटर आदि। दूसरी तरफ जिरोंदिस्त थे- ये शिक्षित और सुसंस्कृत लोग थे। इन्हें किताबी ज्ञान अधिक था। फलतः ये व्यावहारिक राजनीतिज्ञ नहीं थे। प्रमुख नेता थे- इस्नार, मैडम रोलां, ब्रिसो आदि। यहां समझने की बात यह है कि दोनों ही गुट गणतंत्र के हिमायती थे, विदेशी शक्तियों के विरूद्ध युद्ध का समर्थन करते थे। अंतर केवल स्वरूप का था। वस्तुतः जिरोदिस्तो ने फ्रांस में उदारवादी स्थान ग्रहण कर लिया था। उनका मानना था की क्रांति बहुत आगे जा चुकी है और उसका अंत होना चाहिए। वे और अधिक सामाजिक समानता लाने के विरूद्ध थे। वे स्वतंत्रता पर अधिक जोर देते थे। उधर जैकोबियन लोग समानता पर अधिक जोर देते थे तथा निम्न वर्गों के प्रति सद्भावपूर्ण रवैया रखते थे।
- नेशनल कन्वेंशन के समक्ष कठिनाइयां
नेशनल कन्वेंशन के सामने तीन प्रमुख समस्याएं थी- विदेशी आक्रमण, राजा की मौजूदगी और गृहयुद्ध। सितंबर 1792 में फ्रांसीसी सेना ने बेल्जियम पर अधिकार कर लिया और दक्षिण में नीस और सेवॉय भी उसके अधिकार में आ गए। इन विजयों से हॉलैंड, आस्ट्रिया, प्रशा और इंग्लैंड घबरा गए। क्रांतिकारियों ने 1792 में घोषणा भी कर दी कि फ्रांस का गणतंत्र स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावनाओं पर आधारित है और इन भावनाओं का प्रसार करना वह अपना कर्तव्य समझता है। फ्रांस जिन जगहों पर आधिपतय कायम करेगा वहां क्रांतिकारी सिद्धान्तों को लागू करेगा और पादरियों और कुलीनों की संपत्ति छीन लेगा और जो भी देश इसका विरोध करेगा उसे क्रांति का शुत्र समझ जाएगा। इस घोषणा से यूरोप के निरंकुश राजतंत्री देश भयभीत हो गए और अब फ्रांस की क्रांति फ्रांस की न होकर पूरे यूरोप की हो गई। अतः यूरोपीय देश क्रांति के प्रसार को रोकने के लिए एकजूट हो गए और इंग्लैंड, हॉलैंड, आस्ट्रिया, प्रशा के एक गुट का फ्रांस के विरूद्ध निर्माण हुआ। इस गुट ने कई जगहों पर फ्रांस को पराजित किया। फलतः विदेशी युद्ध में फ्रांस की पराजय नेशनल कन्वेशन के समक्ष एक मुख्य समस्या बन गई।
नेशनल कन्वेंशन ने एक प्रस्ताव पारित कर राजतंत्र को समाप्त किया और गणतंत्र की स्थापना की। राजा पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और मृत्युदण्ड की सजा दी गई। राजा के वध के प्रश्न पर जिरोंदिस्तों की नीति स्पष्ट नहीं थी। वे राजतंत्र के विरोधी तो थे लेकिन वध के प्रश्न पर जनमत संग्रह की बात कर रहे थे। इसके विपरीत जैकोबियन्स का मत था कि राजा का देशद्रोह सिद्ध हो चुका है। अतः उसे मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिए। अतंतः 21 जनवरी 1793 को लुई 16वां फांसी पर चढ़ा दिया गया।
नेशनल कन्वेंशन को जैकोबियन और जिरोदिस्तों के बीच संघर्ष की समस्या का भी सामना करना पड़ा। वस्तुतः युद्ध के कारण फ्रांस आर्थिक संकट से घिर गया था, कीमतें बढ़ गई थी जिससे कन्वेशन ने राहत देने के लिए विधान बनाया, अमीरों से कर्ज वसूलने का नियम बनाया। इन कदमों का जिरोंदिस्तों ने विरोध किया। जब जैकोबियो ने पेरिस की भीड़ और कम्यून की सहायता से कन्वेंशन पर आक्रमण कर सत्ता पर अधिकार किया और जिरोंदिस्तो को गिरफ्तार कर आतंक के राज्य (reign of terror) की स्थापना की।
'आतंक के राज्य' की स्थापना के साथ ही फ्रांस एक बार पुनः अव्यवस्था का शिकार हुआ। रॉबस्पियर के नेतृत्व में इसकी स्थापना की गई थी। इसमें क्रांतिकारी, जनसुरक्षा की स्थापना की गई थी और जो कोई जैकाबिन्स के विरूद्ध काम करता उसे मृत्युदण्ड की सजा दी जाती। रॉबस्पियर रूसो की विचारधारा से प्रभावित था। जिसके अनुसार “सामान्य इच्छा” (जनरल विल) ही सार्वभौमिक इच्छा है। रॉबस्पियर ने सत्ता पर नियंत्रण रखने के लिए विरोधियों को “गिलोटिन” (फांसी) पर चढ़ा दिया। अतः सभी व्यक्ति अपने जीवन को लेकर सशंकित हो उठे। अंततः जुलाई 1794, में रॉबस्पियर कैद कर लिया गया और फांसी दे दी गई इसी के साथ आंतक के राज्य की समाप्ति हुई।
आंतक के राज्य के बाद 'थर्मिदोरियन की प्रतिक्रिया' (Thermidorian reaction) हुई। उदारवादी थर्मिदोरियन नेताओं ने देश की सत्ता संभाली और आंतक राज्य की व्यवस्थाओं को भंग किया, जैकोबियन्स को अवैध घोषित किया। आंतक के शासन के दौरान लगाए गए मूल्य तथा पारिश्रमिक पर से नियंत्रण उठा लिया गया। जिससे कीमतें पुनः बढ़ गई, सट्टेबाजों का प्रभाव बढ़ गया और प्रतिक्रिया स्वरूप विद्रोह हुए लेकिन इन विद्रोंहो को दबा दिया गया।
- नेशनल कन्वेंशन के कार्य
- 1. राष्ट्रीय शिक्षा नीति अपनाई गई ओर फे्रंच राष्ट्रभाषा घोषित की गई।
- 2. गुलामी प्रथा समाप्त कर दी गई तथा ऋण न चुकाने पर जेल भेजने संबंधी कानून समाप्त किए गए।
- 3. सबसे बड़े पुत्र को ही उत्तराधिकार देने का कानून समाप्त कर पारिवारिक जीवन में समानता को स्थापित किया गया।
- 4. राजतंत्र को समाप्त कर गणतंत्र की स्थापना दिवस से एक नया पंचाग (22 सितंबर 1792) लागू किया गया।
- 5. माप तौल की नयी पद्धति, ग्राम, लीटर, मीटर शुरू की गई।
- 6. कालाबाजारी रोकने के लिए राशनिंग व्यवस्था लागू की गयी।
- 8. धर्म के मामले में राज्य ने अपने को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया और पादरियों को कोई मान्यता नहीं दी गई।
तृतीय चरण (1794-99 ई)[संपादित करें]
तृतीय चरण-1794-99 (उदार गणतंत्र)-“डायरेक्टरी” का शासन वस्तुतः नेशनल कन्वेंशन ने एक संविधान का निर्माण कर कार्यपालिका का उत्तरदायित्व 5 सदस्यीय “निदेशक मंडल” को सौंपा। मंडल के सभी सदस्यों के अधिकार बराबर थे। प्रत्येक सदस्य बारी-बारी से तीन महीने के लिए अध्यक्ष हुआ करते थे। प्रत्येक वर्ष एक सदस्य कार्यकाल समाप्त होना था और उसके बदले दूसरे सदस्य की नियुक्ति की जानी थी। इस तरह नेशनल कन्वेंशन के बाद फ्रांस में डायरेक्टरी का शासन शुरू हुआ जो 1795 से 1799 तक चला। अतं में नेपोलियन ने डायरेक्टरी के शासन का अंत कर दिया। डायरेक्टरी का यह शासन अव्यवस्थित, दुःखमय रहा। संचालक मंडल को सशस्त्र सेनाओं के नियंत्रण एवं सेनाध्यक्षों की नियुक्ति, फ्रांस की ओर से संधि करने या युद्ध करने के अधिकार प्राप्त थे। संचालक मंडल के सामने सबसे प्रमुख समस्या थी युद्ध की समस्या, दूसरी तरफ डायरेक्टरी के सदस्य अनुभवहीन, अयोग्य तथा भ्रष्ट थे। अतः डायरेक्टरी के शासन काल में तरह-तरह की गड़बड़ी फैली, बेकारी बढ़ी, व्यापार ठप्प पड़ गया और उसकी विदेश नीति भी कमजोर रही। ऐसी स्थिति में फ्रांस की जनता एक ऐसे शासक (नेतृत्व) की आवश्यकता महसूस कर रही थी जो देश के अंदर और बाहर शांति स्थापित कर सके तथा विदेशी शक्तियों को परास्त कर सके।
इस काल में नेपोलियन ने सैन्य विजयों द्वारा फ्रांस के सम्मान को स्थापित किया और अंततः डायरेक्टरी के शासन का अंत कर सत्ता पर नियंत्रण स्थापित किया।
चतुर्थ चरण (1799-1814 ई)[संपादित करें]
1799 में नेपोलियन ने डायरेक्टरी के शासन का अंत किया और फ्रांस का प्रथम काउन्सल बना और 1804 ई. में उसने अपने को सम्राट घोषित कर दिया और इस तरह नेपोलियन के तानाशाही साम्राज्यवादी शासन की शुरूआत हुई।
क्रांति का प्रभाव[संपादित करें]
यूरोप में फ्रांस ही वह देश है जिसने क्रांति के माध्यम से पुरातन व्यवस्था के पतन को सुनिश्चित किया। इस क्रांति का प्रभाव यूरोप तक ही सीमित न रहा। इसने समस्त विश्व को प्रभावित किया। क्रांति के नारे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का प्रसार पूरे यूरोप में हुआ। एक तरफ इसने जहां राष्ट्रवाद, जनतंत्रवाद जैसी नई शक्तियों को पनपने का मौका दिया तो दूसरी तरफ आधुनिक तानाशाही और सैनिकवाद की नींव भी डाली।
फ्रांसीसी क्रांति के प्रभावों को निम्न बिन्दुओं के तहत् समझा जा सकता हैः
- स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व के नारे का प्रसार : फ्रांसीसी क्रांति के प्रेरक शब्द थे- "स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व"। इन तीन शब्दों ने विश्व की राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया। जिस प्रकार धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् का महत्व है उसी प्रकार राजव्यवस्था में स्वतंत्रता एवं बंधुत्व का भारत सहित अनेक देशों के संविधानों में भावना को देखा जा सकता है।
- लोकतांत्रिक सिद्धान्त का विकास : फ्रांसीसी क्रांति का महत्व इस बात में है कि इसमें लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। क्रांति ने शासन के दैवी सिद्धान्त का अंत कर लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त को मान्यता दी। मानवधिकारों की घोषणा ने व्यक्ति की महत्ता को प्रतिपादित किया और यह सिद्ध किया कि सार्वभौम सत्ता जनता में निहित है और शासन का अधिकार जनता से आता है।
- [[सामंतवाद] की समाप्ति : फ्रांसीसी क्रांति ने सामंती व्यवस्था पर चोट कर सामंती विशेषाधिकारों का अंत किया और क्रांति की ये उपलब्धि यूरोप के अन्य देशों को भी प्रभावित करती रही।
- राष्ट्रवाद का प्रसार : फ्रांसीसी क्रांति ने जन-जन में राष्ट्रवाद की भावना को पैदा किया। वस्तुतः अभी तक आम जनता की भक्ति राजा के प्रति थी। फ्रांसीसी क्रांति ने राजभक्ति को देशभक्ति में परिवर्तित कर दिया। इतना ही नहीं, फ्रांस के बाहर भी फ्रांसीसी क्रांति ने राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया और नेपोलियन के साम्राज्यवादी विस्तार को रोका।
- धर्मनिरपेक्षता की भावना का प्रसार : फ्रांसीसी क्रांति ने धर्म को राज्य से अलग कर धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान किया। अब धर्म व्यक्तिगत विश्वास की वस्तु बन गई। जिसनें राज्य को किसी तरह हस्तक्षेप नहीं करना था।
- सैन्यवाद का विकास : फ्रांसीसी क्रांति ने सैन्यवाद को प्रेरित किया। वस्तुतः नागरिकों के लिए सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी गई। युद्ध के लिए जनता की संपूर्ण लामबंदी के लिए ये पहली अपील थी। कहा गया "अब से जब तक गणतंत्र के प्रदेश से शत्रुओं को निकाल बाहर नहीं कर दिया जाता तब तक फ्रांसीसी जनता स्थायी रूप से सैनिक सेवा के लिए उपलब्ध रहेगी।" अभी तक युद्ध राजा के पेशेवर सैनिकों द्वारा लड़ा जाता था। इसी सैन्यवाद ने आगे चलकर अनेक राष्ट्रों को प्रभावित किया और प्रथम विश्वयुद्ध का एक महत्वपूर्ण कारण बना।
- अधिनायकवाद की शुरूआत : फ्रांसीसी क्रांति को अधिनायकवाद का उद्गम स्रोत माना जाता है। रॉबस्पिर के 'आतंक का शासन' उसका पहला जीता जागता सबूत था। क्रांति के दौरान अनेक नीतियों और सिद्धान्तों को बदलना पड़ा और वे असफल हुए। फलस्वरूप एक व्यक्ति की योग्यता पर बल दिया जाने लगा। इसी से नेपोलियन जैसे तानाशाह का उद्भव संभव हुआ। आगे चलकर इटली, जर्मनी सहित कई देशों में अधिनायकवाद पनपा।
- समाजवाद का मार्ग प्रशस्त : फ्रांसीसी क्रांति ने समाजवादी आंदोलन को दिशा दी। एक प्रगतिवादी संस्था “एनरेजेज” के लोगों ने जनता की ओर से बोलने का दावा करते हुए मांग की कि कीमतों पर सरकारी नियंत्रण हो, गरीबों की सहायता की जाएं और युद्ध खर्च को पूरा करने के लिए धनवानों पर भारी कर लगाए जाए। 'अधिकतम नियम' (Law of maximum) के तहत वस्तुओं का अधिकतम मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित कर दिया गया। 1795 ई. में पैन्थियन सोसायटी का गठन हुआ। इसका उद्देश्य मजदूर वर्ग के आंदोलन को सशक्त करना था। इससे संबंधित एक “ट्रिब्यून” नामक पत्र निकलता था जिसका संपादक- नोएल बवूफ था। वह फ्रांस में ऐसी राजव्यवस्था स्थापित करना चाहता था जो पूंजीवादी प्रभाव से मुक्त हो और आर्थिक समानता से परिपूर्ण हो। उसने सर्वहारा वर्ग के माध्यम से क्रांतिकारी कार्यक्रम बनाए। यद्यपि पैन्थियन विद्रोह का दमन कर दिया गया किन्तु आधुनिक समाजवादी आंदोलन “बवूफवाद” से काफी प्रभावित रहा।
फ्रांसीसी क्रांति की प्रकृति[संपादित करें]
फ्रांसीसी क्रांति की प्रकृति को क्रांति के आदर्शों, क्रांति के नेतृत्व, क्रांति की प्रगति, क्रांति के दौरान लाए गए परिवर्तनों और विश्व पर पड़े प्रभावों के प्रकाश में समझे जाने की जरूरत है। इस दृष्टि से क्रांति एक ऐसी क्रांति थी जिसका प्रारंभ तो कुलीन वर्ग ने किया, फिर आगे चलकर इसका नेतृत्व मध्यवर्ग के हाथों में आया। कुछ समय के लिए यह क्रांतिकारी तत्वों के प्रभाव में रही और अंत एक सैनिक तानाशाह के साथ हुआ। इस तरह फ्रांसीसी क्रांति उस विशाल नदी की तरह जो उच्च पर्वत शिखर से प्रारंभ होकर मार्ग में अनेक छोटे-मोटे पर्वतों को लांघती हुई कभी तीव्र गति से, तो मंद गति से प्रवाहमान रही।
क्रांति का मध्यवर्गीय स्वरूप[संपादित करें]
1789 में हुई फ्रांसीसी क्रांति को एक बुर्जुआ क्रांति के रूप में देखा जा सकाता है। क्रांति के प्रथम चरण में नेतृत्व तृतीय स्टेट के बुर्जुआई तत्वों के हाथों में था। मध्यवर्गीय नेतृत्व ने निजी संपत्ति को ध्यान में रखते हुए कुछ सिद्धान्त भी बनाएं। वस्तुतः सामंतवाद के अंत की घोषणा तो कर दी गई किन्तु सामंती अधिकारों को यूं ही नहीं छोड़ दिया गया, बल्कि भूमिपतियों की क्षतिपूर्ति करने के बाद ही किसान किसी उत्तरदायित्व से मुक्त हो सकते थे।
मानवाधिकारों की घोषणा में मध्यवर्गीय प्रभाव देखा जा सकता है। संपत्ति के अधिकार को मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों की श्रेणी में रखा गया जो बुर्जुआ हितों के संरक्षण से संबंधित है। इसी प्रकार वयस्क मताधिकार की बात तो की गई किन्तु संविधान में “नागरिक” शब्द का अत्यंत संकुचित अर्थों में प्रयोग किया गया। नागरिक को सक्रिय व निष्क्रिय नागरिकों में विभाजित किया गया। सक्रिय नागरिक वे थे जो अपनी कम से कम तीन दिन के आय की रकम प्रत्यक्ष कर के रूप में अदा करते थे और सिर्फ इन्हें ही मत देने का अधिकार था। प्रतिनिधि होने के लिए भी संपत्ति की योग्यता को आधार बनाया गया और यह धनी लोग ही राजनीतिक क्रियाकलापों में भाग ले सकते थे और इसका मतलब था कि धनी लोग मध्यवर्ग से जुड़े थे। इस तरह फ्रांसीसी क्रांति ने जन्म पर आधारित भेदभाव को नष्ट किया परन्तु उसके जगह प्राचीन सामंतवाद के बदले धन पर आधारित नए सामंतवाद का प्रभुत्व हुआ।
during the revolution, the revolutionaries talked about the loans taken by the autocratic government, but no one talked about waiving those loans. the reason for this was that this loan was given to the government by the bourgeoisie. similarly, the government confiscated the church property but it was not distributed to the landless. the lands were sold at the highest prices and the middle class had the ability to buy this land.
the french revolution ignored the interests of the workers and discouraged the labour movement. the working class played an important role during the revolution, but the bourgeois leadership did not approve of its growing position. therefore, the national assembly re-enacted the laws made in the autocratic monarchy era. under which all trade union-related activities were banned and guilds were outlawed.
the national assembly was dominated by bourgeoisie and in it the jirondist and jacobians also belonged to the bourgeoisie. although the jacobians spoke of the interest of the proletariat, in the establishment of a state of terror, bourgeois interests were kept above all and the help of the army was taken to suppress the reactions of the workers.
middle-class interests were also given prominence in the governance of the directory. all the members of the bicameral legislature that was created by the board of directors were middle-class intellectuals.
bourgeois influence can also be seen on napoleon's reforms. he protected the right to property in his code of law, preserving bourgeois interests, giving relatively wide rights to elites, and benefiting the middle class of its trade and commercial reforms. in this way middle-class elements appear in the form of the revolution. but from the analysis of the entire revolution and its impact, it is clear that in the revolution, there was a convergence of peasants, labourers, women with the middle class elements. in this way, it was not just a middle-class revolution, but it can be seen as a popular revolution.
worldwide format[edit]
the french revolution had a worldwide character. the revolutionaries proclaimed the rights of man and civil in 1789, which stated that all human beings should have equal rights because of being born equal by birth and that these are for all nations, for all human beings, for all times and for the whole world, for example. this declaration was made not for sirpe france, but for the good of all those people everywhere who wanted to be free and wanted to be free from the burden of autocratic monarchy and feudal privileges. in 1792, the english hero named compene was given the title of french citizen by the national assembly and was also elected representative of the national convention. similarly, during the revolution, the idea came to be that in order to keep the revolution permanent and strong, it should be extended to other countries of europe. it envisioned a war in which french forces entered neighboring countries and joined with the local revolutionaries there to overthrow the monarchy and establish republics.
the french revolution was not just a national event, but the slogans of principles - freedom, equality and fraternity echoed all over europe. the effects of the revolution were so far-reaching that the whole of europe was covered by it. in this context, it was said, "if france has a cold, the whole of europe sneezes." ”
the revolution was not planned[edit]
the french revolution was not as well-planned as the russian revolution. in fact, the russian revolution was planned by the bolsheviks and its aim was to gain power and establish the rule of the proletariat, but the french revolution fell prey to events and circumstances from beginning to end and events did not happen the way the revolutionaries wanted to, but rather the events forced the revolutionaries to change their course. if the third state had been accepted by other states at the states general's meeting, the trend of the revolution would have been different. similarly, the state of terror and the rule of the directory also did not run in a planned manner. from this point of view, this revolution was chaotic.
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